प्रधानमंत्री की पुलिस अफसरों को दी गई नसीहत ने कई विचारणीय सवाल भी खड़े किए हैं । पहले भी पुलिस सुधारों को लेकर काफी विचार-विमर्श व सरकारी स्तर पर फैसले हुए हैं। मोदी ने कहा कि तीनों नए आपराधिक न्याय कानूनों को “नागरिक प्रथम, गरिमा प्रथम, न्याय प्रथम” की भावना से बनाया गया है और पुलिस को अब डंडे के बजाय डाटा के साथ काम करना होगा।
पुलिस की भक्षक छवि आजादी के अमृतकाल की सबसे बड़ी विडम्बना एवं त्रासदी है, पुलिस की रक्षक छवि कैसे स्थापित हो, वे खलनायक नहीं, नायक बने, आज के इस सबसे बड़े राष्ट्रीय प्रश्न पर जयपुर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पुलिस के बड़े अधिकारियों के बीच नसीहत देने की जरूरत पड़ी। मोदी ने देश भर के पुलिस मुखियाओं को सीख दी कि पुलिस जनता को बताए कि उसकी शिकायतों पर क्या कार्रवाई हुई। मतलब साफ है कि अभी शायद पुलिस इस काम को पूरी तरह से अंजाम नहीं दे पा रही है। बड़ा सवाल है कि आज़ाद होने के बाद जब हम एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने चले, तब हमने अपनी सबसे महत्वपूर्ण संस्था पुलिस में आमूल-चूल परिवर्तन की बात क्यों नहीं सोची ? भारतीय पुलिस आज हमें जिस स्वरूप में दिखती उसकी नींव 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद पड़ी थी और इसके पीछे तत्कालीन शासकों की एकमात्र मंशा औपनिवेशिक शासन को दीर्घजीवी बनाना था और उसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। 1860 के दशक में बने पुलिस ऐक्ट, आईपीसी, सीआरपीसी या एविडेंस एक्ट जैसे

नूनों के खंभों पर टिका यह तंत्र ना तो कभी जनताका मित्र बन सका, ना ही जनता के रक्षक की भूमिका को निष्पक्षता से निभा सका और ना ही उसकी ऐसी कोई मंशा थी। आजादी के बावजूद आज भी हम विदेशी दासता का दंश ही झेल रहे हैं और उसमें सबसे बड़ी भूमिका पुलिस की ही है । आजाद भारत की बड़ी असफलता है कि पुलिस कानून-कायदों की धज्जियां उड़ाने वाला, भ्रष्ट और जनता के शत्रु संगठन के रूप में ही काम कर रहा है, तभी आम जनता पुलिस नाम से ही थर-थर कांपती है। जरूरत है वर्तमान थानों को अब जन-रक्षक केन्द्र के रूप में विकसित करते हुए पुलिस की नयी कार्यप्रणाली, भूमिका, छवि एवं दायित्वों को निर्धारित किया जाये। पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के 58वें अखिल भारतीय इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री की इस सीख से यह जाहिर होता है कि आजादी के 77 साल बाद भी पुलिस जनता की दोस्त एवं रक्षक के रूप में काम नहीं कर रही। इसके लिए पुलिस को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। प्रधानमंत्री की पुलिस अफसरों को दी गई नसीहत ने कई विचारणीय सवाल भी खड़े किए हैं। पहले भी पुलिस सुधारों को लेकर काफी विचार-विमर्श व सरकारी स्तर पर फैसले हुए हैं। मोदी ने कहा कि तीनों नए आपराधिक न्याय कानूनों को ‘नागरिक प्रथम, गरिमा प्रथम, न्याय प्रथम’ की भावना से बनाया गया है और पुलिस को अ डंडे के बजाय डाटा के साथ काम करना होगा । सवाल यह है कि इसके बावजूद क्या पुलिस अपनी कसौटी पर खरी उतर सकेगी ? अहम सवाल यह भी कि क्या पुलिस को बिना राजनीतिक एवं शासन के दबाव के स्वतंत्र तरीके से काम करने के अवसर मिल सकेंगे ? अगर इस सवाल का जवाब हां है तो हमें इसके कारण एवं मार्ग भी तलाशने होंगे। यह जगजाहिर है कि पुलिस को कई बार राजनीतिक दबाव में काम करना पड़ता है। पुलिस की कार्यप्रणाली बहुत जटिल है और पुलिस बल अपेक्षा से काफी कम है। बड़ा संकट यही है कि आबादी के अनुपात में जितने पुलिसकर्मी होने चाहिए, उतने आज भी नहीं हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 196 पुलिसकर्मी होने चाहिए जबकि वर्तमान में यह आंकड़ा 152 ही है । अनेक राज्यों में तो यह अनुपात 130 के भी नीचे है। पुलिस अफसरों की नियुक्ति में सिफारिशें एवं भ्रष्टाचार किस स्तर का होता हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है। विडम्बना यह है कि एक तरफ पुलिसकर्मियों की कमी है तो दूसरी तरफ मंत्री और विधायकों से लेकर पार्टी पदाधिकारी भी अपनी सुरक्षा के लिए पुलिसकर्मियों की तैनाती चाहते हैं, फिर जनता की सुरक्षा- ढाल कौन और कैसे बनेगा ? भारत को आजादी के अमृतकाल की सम्पन्नता यानी2047 तक विकसित – सशक्त राष्ट्र बनाने के संकल्प को पूरा करने के लिए भारतीय पुलिस को आधुनिक, तकनीकी और विश्वस्तरीय बनाने की जरूरत है। पुलिस अधिकारियों का दावा है कि वे पूरी ईमानदारी से जिम्मेदारी निभा रहे हैं, लेकिन जनता का नजरिया शायद पुलिस के दावों से मेल नहीं खाता। पुलिस में सेवा, सहयोग एवं रक्षा का भाव हो तभी वह जनआकांक्षाओं के अनुरूप अपने आपको ढाल सकती है। शायद तभी प्रधानमंत्री की सीख भी कारगर साबित होगी। जरूरत इस बात की भी है कि हाईटेक हो रहे अपराधियों से निपटने के लिए पुलिस बेड़े को तकनीकी रूप से दक्ष किया जाए। पुलिस का बड़ा दायित्व है कि वह महिलाओं की सुरक्षा पर सकारात्मक एवं सुरक्षात्मक नजरिया विकसित करें ताकि वे कभी भी और कहीं भी बिना किसी भय के काम कर सकें। सरकार की माने तो महिलाओं और लड़कियों को उनके अधिकारों एवं नए कानूनों के तहत उन्हें प्रदान की गई सुरक्षा के बारे में जागरूक करने पर विशेष ध्यान दिया गया है । नये भारत, सशक्त भारत की बुनियादी जरूरत है वर्तमान पुलिस व्यवस्था को भारतीय मूल्यों एवं अपेक्षाओं के अनुरूप गठित करने की । क्योंकि आज की पुलिस व्यवस्था मूलतः ब्रिटिश पद्धति पर आधारित है, यह व्यवस्था लगभग 160 वर्ष से भी पुरानी है, जो रक्षक नहीं बल्कि भक्षक बनी हुई है । किसी पर भरोसा कर रक्षा के लिए छोड़ दे और वही आपका नुकसान कर दे तो उसे भक्षक कहते है । आज भी हमारे राजनेता एवं राजनीति विदेशी मानसिकता एवं दासता से ग्रस्त है। इसलिए तो हमारे शासकों एवं राजनेताओं को आज भी ऐसी पुलिस भाती है, जो उनके इशारों पर विरोधियों के हाथ-पैर तोड़ दे, उनके खिलाफ झूठे केस दर्ज कर दें या उनके समर्थकों के कानून तोड़ने पर अपनी आंखें मूंद ले? आज भी चुनाव जिताने के लिए पुलिस उनके पास सबसे कारगर औजार है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आज भी भारत में जितने भी साम्प्रदायिक दंगे हुए उनमें पुलिस की भूमिका बेहद संदेहास्पद एवं खतरनाक स्थिति थी। पुलिस का कार्य निष्पक्ष रह कर अपने कार्यों को अंजाम देना है ना कि उसी में शामिल हो जाना। राजनीतिक दबाव के कारण पुलिस अपने कार्यों को निष्पादित नहीं कर पाती है और राजनीतिक कारणों से न्याय व्यवस्था प्रभावित होती है। सरकार को चाहिए कि पुलिस को पूरी तरह से राजनीतिक दबाव से मुक्त करे और अपना कार्य ईमानदारी पूर्वक करने दे । जनता की सुरक्षा के लिए आपको यह ज़िम्मेदारी दी गई है ना कि उसी का शोषण करने के लिए। पुलिस काम करने का तरीका आज भी अंग्रेज़ों के ज़माने का है, जिसे सभी सिविल नागरिक अपराधी ही नज़र आता है ।
ललित गर्ग